Archive for अर्जन सिंह

………..जब सुहेली भी ठहरी नज़र आई

हिन्दुस्तान में ६ जनवरी २०१० को प्रकाशित श्रद्धाजंली।

पद्म भूषण कुँवर बिली अर्जन सिंह(१५ अगस्त १९१७-०१ जनवरी २०१०)

कृष्ण कुमार मिश्र
मैनहन
भारत

नुक़ूश-ए-कतरन

हिन्दी ब्लाग जगत में मेरा एक प्रयास, जिसमें मैं अपनी प्रकाशित कृतियों को इस वेब पेज पर इकठ्ठा करूगा।
यहां एक सवाल उत्पन्न हुआ कि आखिर इस जगह का नाम क्या होगा? सवाल तलाशने में मुझे ४८ घंटे लग गये! जो पहला जवाब आया वो था “चिफ़ुरियां” बूढ़े नीम के तने से छूटती चिफ़ुरियां जिन्होंने धरती के हर मौसम को जिया-झेला और फ़िर छूटने लगी, जीवन की डोर से,  जिसे विज्ञान अपने तरीके से परिभाषित करता है और अध्यात्म अपने तरीके से। वो नीम के शरीर का मृत अंश जिसे मेरे गांव में चिफ़ुरियां कहते थे यानी लकड़ी का पतला, छोटा और बेढ़ंगा टुकड़ा भी मानुष के त्वचा पर उग आई फ़ुन्सियों पर घिस कर लगाने के काम आता है और यह राम बाण हुआ करता था त्वचा रोगो के लिए। किन्तु अब न तो बूढ़े वृक्ष बचे है और न ही उनकी वों चिफ़ुरियां। अंग्रेजी के स्क्रैप की जगह यह शब्द बिल्कुल माकूल लगता है मुझे, कमेन्ट की जगह भी और अखबार की कतरन के लिए भी।
यहां एक दिक्कत आ गयी कि इस शब्द से हो सकता है तमाम लोग नावाकिफ़ हो। सो मैने अपने बेव पेज जो अखबार की कतरनों की तरह कपड़े की कतरनों से सुसज्जित है को देखकर पैबंद………कतरन …..आदि-आदि, अब मैने सोचा कि चलिए इस अन्तर्जाल की खाली जगह को अपने लेखों की कतरनों से सजाया जाय, यानी पैबन्द्कारी की जाय और अब इसका नाम रखा “पैबन्द-ए-कतरन”।
किन्तु अभी भी मेरा अति घुमक्ड़ मन चकरघिन्नी लगा रहा था कि यार पैबन्द कोई अच्छी चीज नही, क्यों अन्तर्जाल की इस जगह को खराब करे पैबन्द यानी प्योंदें लगाकर…….!
तो मशविरा हुआ और मेरे एक बुजुर्ग मित्र सिद्दीकी साहब ने मुझे दो नाम सुझाए, अक्श-ए-कतरन और नुकूश-ए-कतरन।
मुझे नुकूश-ए-कतरन रास आया। अतंत: अब इस प्यारी-न्यारी अन्तर्जालीय स्थल का नाम नक़ूश-ए-कतरन है जो कि मुस्तकिल व मुकम्मल है।
अब मैं अपनी कतरनों से खूबसूरत नुक़ूश बनाता रहूंगा। निरन्तर………..अनवरत।